अब जब हम समझ गए हैं कि विश्वास सबसे महत्वपूर्ण चीज है और हमें इसमें आगे बढ़ना चाहिए, तो हमें यह समझने की जरूरत है कि यह कैसे मजबूत होता है। यह केवल अनुभव के माध्यम से मजबूत हो सकता है और कुछ नहीं।
प्रवचन 3: सहस्त्रार पूजा 1991 – सार – विश्वास अनुभव से
लेकिन आध्यात्मिकता की प्रतिक्रिया अभी अभिव्यक्ति नहीं हुई है। यह अभिव्यक्त होता है, यह सब बनाया गया है, इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन यह अभी भी अभिव्यक्त नहीं हुआ है। और यह कैसे अभिव्यक्त होगा? लोग मुझसे यही पूछते हैं, “”माँ, यह कैसे अभिव्यक्त होगा?”” आपने अपने भूतकाल से सीखा है कि आपको इससे डरना चाहिए, उससे डरना चाहिए। इसके अलावा इस जीवनकाल में आपने कई चीजें सीखी हैं। एक बच्चा जलती हुई मोमबत्ती पर अपना हाथ रखते हुए भयभीत नहीं हो सकता है लेकिन एक प्रौढ़ अपने अनुभव के कारण भयभीत होता है। अनुभव से धीरे-धीरे आप अपने को सुरक्षित करने के लिए अपने अंदर चित्त विचारित प्रतिक्रिया का निर्माण करते हैं।
अब मुद्दा यह है कि आपको अपने ह्रदय मे क्या अनुभव संग्रहीत करना चाहिए? और यह अनुभव आपकी दिव्यता और आपकी अपनी आध्यात्मिकता का है। एक बार जब आप उस अनुभव को विकसित करना शुरू कर देते हैं तब आप जान जाते हैं कि आप एक दिव्य व्यक्ति हैं। जब तक कि आप पूरी तरह से जानते न हों कि आप एक दिव्य व्यक्ति हैं, आप चाहे जितनी भी श्रद्धा और विश्वास मुझमें रखते हों आप मुझे पहचान नहीं सकते। यह तो ऐसे ही है जैसे एक अंधा व्यक्ति मुझे पहचान रहा है। यदि कोई अंधा व्यक्ति मुझे पहचान रहा है तो उसके ह्रदय मे वह प्रतिक्रिया नहीं होगी।
तो, सबसे पहले आपको खुद को पहचानना होगा ताकि आप खुद एक दिव्य व्यक्ति बन सके और आपको खुद पर विश्वास हो। यद्यपि हम सहजयोगी हैं फिर भी हम अपने आप पर विश्वास नहीं करते। अगर कोई समस्या है, तो वे मुझे पत्र लिखेंगे। अगर वे बीमार हैं तो वे मुझे एक पत्र लिखेंगे। अगर कोई परिवार पूछताछ कर रहा है तो वे मुझे लिखेंगे। अगर कोई उन्हें कुछ प्रश्नों से परेशान कर रहा है तो वे मुझसे पूछेंगे। लेकिन यदि आप आत्मविश्लेषी और ध्यानस्थ होंगे तो आप उस दिव्यता को अपने भीतर अनुभव करेंगे। जब आप उस दिव्यता को अनुभव करते हैं तो आप जानते हैं कि आप एक दिव्य व्यक्ति हैं।
तो, सहस्त्रार पूजा में, वास्तव में, आपको अपनी दिव्यता का अनुभव करके, अपने को पहचानना होगा, कि आप दिव्य हैं। आप अपनी दिव्यता का अनुभव कैसे करते हैं? कि आप दूसरों को आत्मसाक्षात्कार देते हैं। दूसरों को आत्मसाक्षात्कार देना एक महान अनुभव है। इतना ही नहीं कि आप आत्मसाक्षात्कार देते हैं लेकिन आप उनके चक्रों के बारे में बता सकते हैं, आप जानते हैं कि उनके साथ क्या ठीक नहीं है – आप यह सब करते हुए विश्वास से परिपूर्ण होते है। और मानसिक रूप से आप यह जानते हैं। आप कहेंगे कि “ हाँ, हाँ यह कार्यान्वित हो रहा है ” बिना कोई अहंकार के भाव से जैसे “मैं कर रहा हूँ” आप कहेंगे “माँ यह कार्यान्वित हो रहा है। यह घटित हो रहा है। यह बात है, वह बात।””
लेकिन आप कभी आत्मनिरीक्षण नहीं करते, “”मैं कैसे काम कर रहा हूं? मैं इस काम को कैसे कर रहा हूं? मैं इसे कैसे महसूस कर सकता हूं? क्या हो गया है मुझे। मेरे अंदर क्या सुधार हुआ है? मुझमें क्या कुशाग्र हुआ है? मेरे अंदर क्या उत्थान हुआ है? मेरे मे क्या परिवर्तन हुआ है?””
एक बार जब आप अपने स्वयं के अनुभव के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं, तब महामाया के प्रति एक तरह की अनुभूति (भावना) विकसित होती है। अनुभूति (भावना)। मैं फिर कहती हूँ, अनुभूति (भावना), जैसे भय की अनुभूति, खुशी की अनुभूति, अवसाद की भावना। कोई भी भावना जो आप विकसित करते हैं। और यह भावना जिसे आप कृतज्ञता की भावना, प्यार की भावना, एकता की भावना, खुशी की भावना कह सकते हैं। यह सब आपके ह्रदय में काम करना शुरू कर देता है और फिर आप तदनुसार प्रतिक्रिया महसूस करते हैं। अगर मान लीजिए समुद्र चंद्रमा के प्रति संवेदनशील है तो इसका मतलब है कि इसमें प्रतिक्रिया हेतु जीवन्तता है। एक पत्थर चंद्रमा के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करेगा।
इसी तरह, अध्यात्मिकता के अनुभव और आपके अपने अनुभवों से आपके ह्रदय में उन अनुभूतियों की लहरियाँ उत्पन्न होती हैं, जो आपके स्वयं के अनुभव से होती हैं। और फिर आप उन्हें अभिव्यक्त करना शुरू करते हैं। और मैं ऐसे व्यक्ति को पहचान सकती हूँ। ऐसा व्यक्ति इतना ज्यादा वाकपटु नहीं हो सकता है, सहज योग के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हो सकती है। लेकिन ह्रदय में, दिल में वह इसकी प्रतिक्रिया महसूस करता है। कुछ हासिल किया जाना है क्योंकि आप जानते हैं कि ह्रदय का केंद्र यहां (माँ ब्रह्मरंध्र पर हाथ रखती है) रखा गया है। ह्रदय की पीठ ब्रह्मरंध्र पर है।
यदि आपका ह्रदय खुला नहीं है, यदि ह्रदय में आपके पास वह अंतर्निहित प्रतिक्रियाएं नहीं हैं.. वह श्रद्धायुक्त भय या डर नहीं होना चाहिए। लेकिन एक प्राकृतिक प्रोटोकॉल विकसित होता है। फिर आप कभी गलत नहीं कर सकते क्योंकि आप जानते हैं कि जो भी अच्छा है वह आपके दिल में है। मान लीजिए कि आप किसी को अपने ह्रदय से प्यार करते हैं – तो आप उस व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इसी तरह जब आप अपने दिल में उन प्रतिक्रियाओं को महसूस करना शुरू करते हैं, तो आप कभी भी गलत नहीं कर सकते क्योंकि वे जो आपके भीतर बनाए गए थे, अब अभिव्यक्त हो रहे हैं । क्योंकि आध्यात्मिकता और दिव्यता आपके अंदर पहले से अंतर्निहित थी। अब यह अभिव्यक्त हो रही है।
और फिर आप किसी चीज के बारे में चिंता नहीं करते और आप बाहरी रूप से कुछ भी नहीं करते हैं। यह उपनिषदों में, जैसे शांडिलिया उपनिषद, कथोपनिषद में कहा गया है कि एक बार जब आप ब्रह्म को जान जाते हैं तो सभी बाहरी चीजें जैसे यज्ञोपवीत के धागे पहनना और अन्य सभी ऐसे कार्य त्याग देने चाहिए – यह जरूरी नहीं है – क्योंकि अब आपने सूत्र अपने अंदर ही प्राप्त कर लिया है। तब आपको इन सब वाहरी चीजों को त्याग देना चाहिए क्योंकि अब सब कुछ आपके अंदर ही उपलब्ध है – जो अभिव्यक्त भी हो रहा है। और ऐसा व्यक्ति स्वचालित रूप से उच्च योग्यता वाला योगी बन जाता है।
कलकत्ता में एक सज्जन थे, उनका नाम श्री खान है, हालांकि वह एक हिंदू सज्जन और भौतिकी के एक महान वैज्ञानिक है। वह उन भावनाओं को विकसित कर रहे थे और एक दिन वह बाथटब में स्नान कर रहे थे और पीठ के बल गिर गए। और वह पूरी तरह घायल हो गये और कुछ किरचें मस्तिष्क में चली गईं और वह पूरी तरह से कोमा में थे। ऐसी स्थिति मे थे कि डॉक्टरों ने उनके बारे में पूरी आशा छोड़ दी और कहा, “”वह कभी वापस जीवन में नहीं आ सकते। और वह गहन देखभाल चिकित्सा मे थे। लेकिन गिरने से पहले उन्होंने पुकारा, देखिये प्रतिक्रियाएँ, “माँ”। उस समय मैं दिल्ली मे थी। उन लोगों ने मुझे सूचना दी कि वह गिर गए है और यह सब घटित हुआ है। मैंने कहा ठीक है। मैंने उन पर चित्त डाला। बंधन दिया। अगले दिन उसने अपनी आँखें खोलीं। डाक्टरों के लिए यह अविश्वसनीय था। और तब उन्होने उसे दूसरे वार्ड मे भेज दिया जहां सहजयोगी गए और कहा हम आपको चैतन्य लहरियाँ देंगे। तब उसने कहा लेकिन मुझे कोई दर्द नहीं है, कुछ नहीं। अब वह अलग ही लग रहे था जैसे उनकी उम्र 10 वर्ष कम हो। अब उनका यही अनुभव है और उनके लिए अब सबकुछ यही है। अब वह पूरी तरह से अपनी दिव्यता मे है। इसीलिए अब वह कहते है कि “”माँ, मैं अब एक व्यक्ति हूं जो किसी भी चीज के वारे में नहीं सोचता। जीवन, मृत्यु, कुछ भी। मेरे बच्चों के बारे में भी नहीं। अब मुझे पता है आप कौन हो। मुझे पता है कि मैं आपकी सुरक्षा में हूं। मुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।””
एक अन्य मामला, डॉ वर्लिकर थे जिनके ह्रदय मे विकार था, इसलिए उन्होंने उनके बाईपास बनाया। वह एक महान भक्त। और शायद उनका बाईपास खराब हो गया और उनको भीषण ह्रदय घात पड़ा। वह दुबारा कोमा में चले गए। उन्होंने उसे अस्पताल में रखा। शुरुआत में उनकी धमनियों मे 80% अवरोध था। तो केवल बीस प्रतिशत खुला हुआ था। कोई उम्मीद नहीं थी। इसलिए उन्होंने उनके लिए यह बाईपास बनाया। और उसने कहा, “”कृपया माँ को सूचना दें। उसको ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और मैंने बस उसे बंधन दिया। मैं ऑस्ट्रेलिया में थी। वह भी एक आशा रहित मामला था। और उन्होंने कहा हम एक और बाईपास अब कैसे कर सकते है। यह बाईपास अब खत्म हो गया है, हम अब क्या करें? “”वे उसका ऑपरेशन करने ही वाले थे कि उन्होंने अपनी आंखें खोली और उन्होंने डॉक्टर से कहा, कि मैं पूरी तरह से ठीक महसूस कर रहा हूँ। मुझे नहीं पता क्या हुआ है। मैं पूरी तरह से ठीक महसूस कर रहा हूँ। क्या मैं बैठ सकता हूँ? “”तो डॉक्टर के समझ में कुछ नहीं आया। उसने उनके ह्रदय की जांच की। उसने कहा, “”उसका दिल बहुत अच्छा काम कर रहा है। क्या हुआ है? “”तो, उन्होंने उसकी जांच करवाई तो उन्हें पता चला कि उनका पुराना महाधमनी पूरी तरह से खुल गया था ऐसा चिकित्सा के इतिहास में कभी नहीं हुआ।
अब यह जो उसने अनुभव किया, वह भी उसकी दिव्यता के कारण हुआ और मैं उस पर काम कर सकी – जुड़ाव इतना अच्छा था और इसने काम कर दिया। परंतु यदि आप मानसिक रूप से हर वस्तु का विश्लेषण करेंगे और मानसिक रूप से सहजयोग को समझेंगे, तब आप दिव्यता के उस स्तर को नहीं पा सकेंगे जहां से आप सभी आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यह हर तरह से आपको आशीर्वदित करता है। यदि आप इस बात पर ध्यान देते है की किस तरह से लोगो की मदद की गई चाहे वह इमारतों से संबंधित था, चाहे परिवहन से – हर चीज – जैसे कि कोई इसे कर रहा हो। यहां तक कि यदि आप मानसिक रूप से सहज योगी हैं, ये सभी चीजें काम करती हैं। लेकिन जब आप में दिव्यता बहुत ही बड़े तरीके से अभिव्यक्त हो रही हो, तो आपको निश्चित रूप से मदद की जाती है, अन्यथा इतने ऊंचे स्तर पर यह संभव नहीं है।
ये चमत्कार नहीं हैं। मनुष्यों के लिए ये चमत्कार हो सकते हैं, लेकिन परमात्मा के लिए यह चमत्कार नहीं है। वह ब्रह्मांड के रचयिता है, सम्पूर्ण जगत के वे निर्माता हैं। सार्वभौमिकों के सार्वभौमिक को उन्होंने बनाया है, इसलिए उनके लिए इतना महान क्या है? लेकिन यह अनुभव से पैदा हुआ विश्वास है, अंधविश्वास नहीं है। आत्मनिरीक्षण के माध्यम से अनुभव के साथ विश्वास, “”मैं ऐसा क्यों करता हूं? मुझे ऐसा क्यों करना चाहिए? आपको ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? “”यह आत्मनिरीक्षण शुरू होना चाहिए। जब आप आत्मनिरीक्षण करते हैं तो यह गहराई आगे और बढ़ती है लेकिन ध्यान के माध्यम से और अधिक होती है। यही कारण है कि मैं हमेशा आपको बताती हूं कि कृपया सुबह उठो और अपना ध्यान करो और शाम उठो और अपना ध्यान करो। कम से कम बिस्तर पर जाने से पहले आपको ध्यान करना ही चाहिए। यही एकमात्र तरीका है कि आप अपनी दिव्यता में गहराई से जा सकते हैं जो सभी रचनात्मकता का स्रोत है, समस्त निर्दोषिता का स्रोत, सभी ज्ञान का स्रोत है और सभी आनंद का स्रोत है।
सम्पूर्ण भाषण का लिंक: 1991-05-05 Sahasrara Puja Talk, Ischia, Italy